यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ान
' ग़ालिब '
ग़ज़ल in -अर
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती । ।
१ । ।
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
। । २ । ।
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती । ।
३ । ।
जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़हद
पर तबीयत उधर नहीं आती । ।
४ । ।
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप
हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती । ।
५ । ।
क्यों न चीख़ूँ कि याद करते
हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती । ।
६ । ।
दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी, ऐ
चारागर, नहीं आती ? । । ७ । ।
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको
भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती । ।
८ । ।
मरते हैं आरज़ू में
मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
। । ९ । ।
क़ाबा किस मुँह से
जाओगे, ' ग़ालिब '
शरम तुमको मगर नहीं आती
। । १ ॰ । ।
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Keyed in and posted 21 Oct 2001. Corrected 22 & 24 Oct 2001.